टिकैत का 44 दिनों लंबा मेरठ धरना, जिसने किसानों को सिखाया संघर्ष करने का नया तरीका
पिछले तीन दशकों में किसानों के जो भी आंदोलन हुए, उसमें उनकी खास शैली झलकती है. वो हजारों की संख्या में पहुंचते हैं. लंब ...अधिक पढ़ें
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अपनी मांगों के समर्थन में किसान बड़ी संख्या में दिल्ली के चारों ओर सीमाओं पर इकट्ठे हो गए हैं. किसानों के इस तरह के आंदोलनों की शैली 80 के दशक के आखिर में किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत की अगुवाई में भारतीय किसान यूनियन ने शुरू की थी. जिस तरह से 1988 में भारतीय किसान यूनियन ने 44 दिनों तक मेरठ में कमिश्नरी का घेराव किया था, वो ना केवल ऐतिहासिक था बल्कि उसने उन्हें वास्तव किसानों के निर्विवाद नेता के तौर पर स्थापित कर दिया. मैं उन दिनों मेरठ में रिपोर्टर के तौर पर करियर शुरू कर रहा था. रोजाना इसकी रिपोर्टिंग कर रहा था. क्या था किसानों का वो आंदोलन, जिसने वाकई किसानों को नई आवाज ही नहीं दी बल्कि उनके संघर्ष को नई शैली और तेवर दिए.
जनवरी में उत्तर भारत में कड़ाके की ठंड होती है. ठिठुरन और शीतलहर को पश्चिमी उत्तर प्रदेश इन महीनों में कुछ ज्यादा महसूस करता है. ऐसे ही मौसम में 1988 में पहली बार टिकैत हजारों किसानों को लेकर रातों-रात मेरठ में आ जमे. अमूमन मेरठ के लोगों को लगा इस ठंड में अगर 04 दिन भी वो धरने पर बैठ पाए तो बहुत होगा. धरने की जगह के एक ओर सिविल लाइंस था, जहां जिला प्रशासन के सभी आला अफसर के घर और आफिस थे. सामने बड़ा जिला अदालत परिसर. सटा हुआ कैंट छावनी इलाका.
लोगों के सारे अनुमान ध्वस्त होने लगे और उनकी हैरानी बढ़ती चली गई जब ये कड़कड़ाती ठंड में ये धरना एक महीने को पार करके आगे बढ़ गया. किसी को नहीं अंदाज था कि ये धरना आखिर कब तक चलने वाला है. टिकैत रोज शासन और प्रशासन को चुनौती देते हुए उनके सामने शर्तें रखते थे और नई समय सीमा तय करते थे. हालत ये हो गई कि उत्तर प्रदेश सरकार और जिला प्रशासन को भी नहीं सूझ पा रहा था कि अब वो आखिर करे तो करे क्या.
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टिकैत 44 दिनों तक वो मेरठ में किसानों के अपार हुजूम के साथ रहे. अचानक एक दिन उन्होंने धरना खत्म कर दिया. देश के तमाम दिग्गज नेताओं को वहां आना ही पड़ा बल्कि दूसरे राज्यों से भी किसानों की जत्थे यूं चले आए मानों कोई किसान कुंभ हो रहा हो. टिकैत तब पहली बार बड़े किसान नेता के तौर पर राष्ट्रीय पटल पर उभरे. ठंड में कांपते हुए किसान तब तक मेरठ में टिके रहे जब तक टिकैत बाबा खुली छत के नीचे रहे. सबके साथ बैठकर जमीन पर अखबार बिछाकर खाया.
ठंड में कांपते हुए किसान तब तक मेरठ में टिके रहे जब तक टिकैत बाबा खुली छत के नीचे रहे. सबके साथ बैठकर जमीन पर अखबार बिछाकर खाया.
आंदोलन पर उनकी गजब की पकड़ थी. कमोवेश शांतिपूर्ण धरना. कोई उपद्रव नहीं. कोई गरमागरमी नहीं. किसानों के बीच टिकैत एक मंच पर हुक्का गुड़गुड़ाते मिलते. सलाहकार टोली के साथ बातचीत के दौर चलते रहते. बीच-बीच में दिन में कई बार मौजूद हजारों किसानों से रू-ब-रू होते. मोटे तौर पर वो आंदोलन किसानों के हक के लिए था लेकिन इस आंदोलन के जरिए उन्होंने खापों के सामाजिक सुधार को भी बखूबी जोड़ लिया.
नंगे पैर, मुड़ा-तुड़ा कुर्ता और बगल में हुक्का
अगर आप नेताओं को लकदक कपड़ों, धवल श्वेत कुर्तों और उम्दा जैकेट्स को देखते रहे हों तो टिकैत बाबा शायद ऐसे कभी नजर आए हों. बगल में हुक्का, नंगे पैर, मुड़ा-तुड़ा और अक्सर गंदा ही रहने वाला कुर्ता और सफेद धोती. वो ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे.
अलबत्ता दुनिया की समझ जरूर खूब लगती थी. 44 दिनों तक किसी एक जगह पर धरना तब तो कतई आसान कतई नहीं होता जबकि उसका परिणाम निकलना मु्श्किल लगने लगे और आपके साथ हजारों लोग काम धंधा, खेती खलिहानी छोड़कर ट्रैक्टर और बैल गाड़ियों पर चले आए हों.
वो जब बोलने के लिए खड़े होते थे, तो सारे किसान शांत होकर उनकी बातें सुनने लगते थे. उन्होंने केवल किसान आंदोलनों में उनके हक और जायज मांगों की बात ही नहीं की बल्कि समय समय पर जाट खापों में सामाजिक सरोकारों की बात भी की.
आंदोलन के साथ सामाजिक सरोकार भी
मुझको याद है कि वो जब बोलने के लिए खड़े होते थे, तो सारे किसान शांत होकर उनकी बातें सुनने लगते थे. दिन में कई बार अगर वो सरकार के खिलाफ हुंकार लगाते थे. शासन-प्रशासन के लिए मांगें मानने के लिए सीमा तय करते थे तो बीच बीच में भाईचारे, सदाशयता की बातें करते थे. दिखावे के खिलाफ थे. मुझको याद है कि किस तरह इस धरने के दौरान उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के लिए शादी के दौरान दहेज नहीं लेने की शपथ दिलाई. तब 10 या 12 सूत्री एक शपथ पत्र बनाया गया, जिसमें शादियों में कैसा खाना बनेगा से लेकर किस तरह सादगी बरती जाएगी, इसकी चर्चा हुई.
किसी को अंदाज नहीं था कि टिकैत फौज के साथ पहुंच जाएंगे
जनवरी के मध्य में सिसौली में टिकैत ने घोषणा की कि अगर सरकार ने किसानों की मांगे नहीं मानीं, बिजली से लेकर फसलों के खरीद मूल्यों में न्याय नहीं हुआ तो वो 27 जनवरी से मेरठ में आकर धरने पर बैठ जाएंगे. राज्य सरकार से लेकर स्थानीय प्रशासन ने इसे हल्के में लिया. हालांकि टिकैत एक साल पहले अपने कई धरने और प्रदर्शनों के कारण चर्चा में आ चुके थे लेकिन ये सीमित संख्या वाले थे. किसी को अंदाज नहीं था टिकैत इतनी बड़ी फौज लेकर मेरठ में पहुंच ही जाएंगे.
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किसानों के साथ ट्रैक्टर ट्रॉली में बैठकर आए
27 जनवरी 1988 को टिकैत खुद ट्रैक्टर ट्रॉली पर बैठकर आए और मेरठ आने वाली चारों ओर की सड़कें भी ट्रैक्टर और बैलगाड़ियों से भरी हुईं थीं. किसान चले आ रहे थे. उम्र की कोई सीमा नहीं थी. पहले वो कैंट में रक्षा लेखा नियंत्रक आफिस के सामने बडे़ मैदान में जुटे. लेकिन फिर वहां से उन्होंने मेरठ कॉलेज के ठीक सामने कमिश्नर आफिस के सामने कूच किया. वहां वो धरना देकर बैठ गए. लकड़ी के तख्तों का मंच बनाया गया. उसी पर अपने सलाहकारों और किसानों साथियों के साथ बैठकर टिकैत बाबा हुक्का गुड़गुड़ाते और किसानों से मुखातिब होते.
पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों की बोलने की भाषा हो सकता है कि अक्खड़ लगे लेकिन वो सीधी सपाट बात होती है, बगैर किसी लाग लपेट वाली. टिकैत अक्सर उसी भाषा में बात करते थे.
खरी और ठेठ जाट जुबान
पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों की बोलने की भाषा हो सकता है कि अक्खड़ लगे लेकिन वो सीधी सपाट बात होती है, बगैर किसी लाग लपेट वाली. टिकैत अक्सर उसी भाषा में बात करते थे. जब गन्ने को गंडा कह रहे होते तो नेशनल मीडिया और अंग्रेजी मीडिया के पत्रकार चकित होते कि वो क्या बोल रहे हैं. उन्हें पहली बार कोई ऐसा किसान नेता टकराया, जो अलग जुबान में बोलता था. खरा-खरा बोलता था. ठेठ देहाती तरह से रहता था.
तब भी किसान महीने भर की तैयारी से आए थे
खैर जब मेरठ कमिश्नरी के सामने किसानों का हुजूम भरना शुरू हुआ, तो आने वाले दिनों के साथ बढ़ता गया. किसी को उम्मीद नहीं थी कि इतने किसान इस जमावड़े में पहुंच जाएंगे. उनकी संख्या हजारों में थी. सब अपने साथ अपने बिस्तर रजाई गद्दे लेकर आए थे. ढेर सारी पुआल, जिस पर गद्दे बिछ जाते थे. ट्रैक्टर और ट्रालियां भी सोने के काम आती थीं.
भरपूर खाना रोज गांवों से आता
दोपहर होते होते वहां खाने का अंबार लगने लगता था. पड़ोस के गांवों से रोटी-सब्जी, पुडियां-हलवा, गुड़, छाछ, दूध थोक के भाव वहां पहुंचता. किसान तो खाते ही. कवरेज कर पत्रकारों, पुलिसवालों से भी खाने का आग्रह किया जाता. यहां कोई भी आ सकता था. किसी को खाने के लिए मना नहीं होता था. टिकैत भी उसी तरह पेपर पर बिछाकर अपने साथियों के साथ खाते.
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क्या वो वाकई चरण सिंह की जगह ले रहे थे
धरने पर कभी चौधरी चरण सिंह की पत्नी आईं. हालांकि कुछ लोगों का ये कहना था कि इस आंदोलन से चरण सिंह का परिवार खुश नहीं है, क्योंकि इससे उनके निर्विवाद किसान नेता होने को चुनौती मिलेगी. हालांकि बाद में ऐसा होता भी गया. टिकैत ने वो जगह लेनी शुरू कर दी. यहां कभी केंद्र के दिग्गज नेता आए तो कभी और प्रदेश के. कभी स्वामी अग्निवेश हाजिर हुए तो कभी अब्दुल्ला बुखारी. जिला प्रशासन के लिए जरूर सांसत वाली स्थिति थी कि वो क्या करे. कुछ करे या नहीं करे. हालांकि ऊपर से उसे चुपचाप रहने को ही कहा गया होगा.हालांकि सही बात यही थी कि वो कुछ करने की स्थिति में भी नहीं था.
मेरठ से चौधरी टिकैत को राष्ट्रीय सुर्खियां मिलीं और हौसला
मेरठ के अखबारवालों के लिए ये आंदोलन गजब की खुराक था कि कई पन्ने इस पर दिए जा रहे थे तो नेशनल मीडिया मौजूद था. तब टीवी न्यूज मीडिया पैदा भी नहीं हुआ था, जो कुछ भी था, वो दूरदर्शन था.
कुल मिलाकर मेरठ चौधरी टिकैत के लिए एक मील का पत्थर बना, जिसने उन्हें राष्ट्रीय सुर्खियों में ला दिया. आगे उन्होंने इसी से प्रेरणा लेकर लखनऊ कूच किया तो बोट क्लब पहुंचकर दिल्ली में हलचल पैदा की.
टिकैत जब मेरठ में लंबे धरने पर बैठे तो आमतौर पर लोग कहा करते थे कि टिकैत के साथ कोई समझदार शख्स नहीं है, ये आंदोलन बिखर जाएगा. जबकि हकीकत ये थी कि टिकैत में अगर खुद भी गजब की समझबूझ थी तो उनके साथ पढ़े लिखे लोगों की मंडली भी थी, कुछ बेहद पढ़े-लिखे समझदार युवा तो कुछ अच्छे पदों पर रह चुके अनुभवी लोग.
अगर उस आंदोलन में टिकैत का एक नेता के तौर पर मूल्यांकन किया जाए तो कहना होगा कि वो ना ज्यादा बोलते थे और कम बल्कि नपा-तुला. अपने लोगों के बीच अपनी वैसी ही बोली. मीडिया से मुखातिब हों तो भी वही लहजा. लेकिन चेहरे पर हमेशा एक खास गंभीरता, सारे किसानों का गार्जियन होने का भाव. खुद अनुशासन में और उनके किसान भी अनुशासन में.
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