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हमें इसकी भी शर्म नहीं है कि हॉकी जैसे खेल में हम फिसड्डी रह गए!
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हिंदी समाचार / न्यूज / साहित्य / हमें इसकी भी शर्म नहीं है कि हॉकी जैसे खेल में हम फिसड्डी रह गए!

हमें इसकी भी शर्म नहीं है कि हॉकी जैसे खेल में हम फिसड्डी रह गए!

हम हॉकी को राष्ट्रीय खेल के नाते नहीं, राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में ही पसन्द करते हैं.
हम हॉकी को राष्ट्रीय खेल के नाते नहीं, राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में ही पसन्द करते हैं.

सच तो यह है कि जो व्यक्ति और देश खेलने-कूदने और खेल को प्रेम करने वाला देश होता है, वह अपने पसन्दीदा खेल में अव्वल रहता ...अधिक पढ़ें

    ‘आगे अन्धी गली है’ पुस्तक में विख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी के अन्तिम दो वर्षों के लेख संकलित हैं. प्रभाष जोशी ने तलहका पत्रिका में एक लेख “जो देश खेलता नहीं जीतता” नहीं लिखा था. इसमें उन्होंने क्रिकेट प्रति दिवानगी और अन्य खेलों की दयनीय स्थित पर प्रकाश डाला है. आप भी पढ़ें यह लेख-

    सन् 2008 में खेलों की बहस में नवाब पटौदी ने टीवी पर कह दिया कि हॉकी के बजाय क्रिकेट को राष्ट्रीय खेल मान लेना चाहिए. यह खेल के लिए अच्छा है कि हॉकी के लिए इतने धुरंधर स्टिक लिए खड़े हो गए.

    हॉकी लोकप्रियता और विश्व हॉकी में भारत की जगह पर कोई बहस नहीं करता. बहस इस पर है कि हॉकी भारत का राष्ट्रीय गर्व और गौरव रहा है. उसे राष्ट्रीय खेल के पद से हटाना जैसे राष्ट्र को अपने गौरव प्रतीक से वंचित करना और उसकी जगह ऐसे खेल क्रिकेट को देना है जिसे अंग्रेज भारत लाए और जो खेल महाराजाओं का खेल रहा है. जैसे हॉकी का खेल भारत में जन्मा और फला-फूला हो. हॉकी भी अंग्रेज ही लेकर आए थे. इंग्लैंड में भी इसे रोमन लोग लाए थे जिन्हें यह ग्रीस लोगों से मिला था. ग्रीक लोगों को इरानियों ने दिया. इसका कोई उल्लेख या प्रमाण नहीं मिला है कि इरानियों ने इसे भारतीयों से सीखा.

    क्रिकेट की तरह हॉकी भी अंग्रेज ही लाए. यह जरूर है कि हॉकी को भारत के आम लोगों ने अपनाया और क्रिकेट को पारसियों और राजा-महाराजाओं ने आम लोगों के इस खेल में भारतीयों ने गजब की कुशलता दिखाई और जब यह ओलंपिक खेलों में खेला जाने लगा और भारत ओलंपिक में खेलने लगा तो वही चैम्पियन हो गया.

    आजादी की लड़ाई जब चल रही थी तब भारत हॉकी का विश्व चैम्पियन होता था. स्वतंत्र होने के बाद भी सन् 60 तक हॉकी में भारत की तूती बोलती रही. ध्यानचंद संसार के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी माने जाते थे. इसलिए भारत के लोगों को अगर यह अपने गर्व और गौरव का राष्ट्रीय खेल लगता है तो ठीक ही है. और इसलिए इसे राष्ट्रीय खेल बना दिया गया.\

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    लेकिन सन् 60 से हॉकी में भारत की हालत पतली हो रही है. और उस साल तो शर्मनाक ही कहा जाएगा क्योंकि बीजिंग में हुए ओलंपिक में भारत खेलने के काबिल ही नहीं पाया गया. यह अपमानजनक है कि जिस हॉकी में भारत ने सबसे ज्यादा ओलंपिक स्वर्ण पदक जीते हैं, वह ओलंपिक हॉकी में खेल तक नहीं सका. इस राष्ट्रीय शर्म से राष्ट्र नहीं, हॉकी खेलने वालों की गर्दन झुकी. राष्ट्र तो भारत के क्रिकेट में शिखर पर पहुंचने और विश्व क्रिकेट का शक्तिपीठ होने का उत्सव मनाता रहा. हॉकी के बजाय क्रिकेट खेलने और देखने वाले ही आज विश्व भर में भारत में सबसे ज्यादा हैं और इसलिए हर कोई भारत में खेलना चाहता है. दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे अमीर खिलाड़ी भी एक भारतीय सचिन तेंदुलकर है. इसलिए सच पूछिए तो भारत का वास्तविक राष्ट्रीय खेल क्रिकेट ही है.

    लेकिन हम हॉकी को राष्ट्रीय खेल के नाते नहीं, राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में ही पसन्द करते हैं. कारण आजादी के आन्दोलन के दौरान उपजी राष्ट्र भक्ति ही है. भारत में हॉकी की हालत देखकर अगर आपको लगे कि हमारी राष्ट्रभक्ति पाखंड है तो गलत नहीं होगा. दरअसल हमारा खेलप्रेम इसी पाखंडी राष्ट्रप्रेम का उदाहरण है. इसका सबसे सटीक प्रमाण बीजिंग में देखने को मिला. दस मीटर एयर रायफल से निशानेबाजी में अभिनव बिंद्रा ने स्वर्ण पदक जीता, ऐसी निशानेबाजी का नाम भी ज्यादातर लोगों ने सुना नहीं होगा, लेकिन बिंद्रा का स्वर्ण पदक किसी भी भारतीय का पहला स्वर्ण पदक था और इसलिए वह राष्ट्रीय उत्सव का दिन हो गया. न यह निशानेबाजी देश का एक लोकप्रिय खेल है, न बिंद्रा इसकी राष्ट्रीय व्यवस्था से निकलकर आए हैं. लेकिन जब साल के सबसे बड़े खिलाड़ी और सबसे बड़ी उपलब्धि की बात चली तो शतरंज के विश्व विजेता विश्वनाथन आनंद और टेस्ट इतिहास में सबसे ज्यादा रन और शतक बनाने वाले सचिन तेंदुलकर से आगे अभिनव बिंद्रा ही कूद गए. बीजिंग ओलंपिक में कुश्ती और मुक्केबाजी कांस्य पदक जीतने वाले सुशील कुमार और विजेन्द्र सिंह का नाम भर लिया गया. बैडमिंटन में साइना नेहवाल, गोल्फ में जीव मिल्खा सिंह, बिलियर्ड्स में पंकज आडवाणी, फुटबाल में बाइचुंग भूटिया का तो नाम भी नहीं लिया गया. मजा देखिए कि सारे खेलकूद की जननी एथलेटिक्स का न कहीं नाम सुना गया, न उसमें भारतीयों का कोई नामलेवा है. यानी प्रेम और पागलपन खेल और खेलने का नहीं खेल में नाम और पैसा पाने का है. इसलिए जो लोग अपने खेल में कुछ नहीं कर पाते वे भी बढ़-चढ़कर भारत में दूसरे सभी खेलों को चैपट कर देने के लिए क्रिकेट को कोसते हैं. जबकि सच्चाई यह है कि क्रिकेट सरकार से कोई पैसा नहीं लेता, न खेलों के लिए निर्धारित राष्ट्रीय बजट में उसका कोई हिस्सा है. बल्कि क्रिकेट अब दूसरे खेलों को पैसा देने लगा है.

    सच तो यह है कि जो व्यक्ति और देश खेलने-कूदने और खेल को प्रेम करने वाला देश होता है, वह अपने पसन्दीदा खेल में अव्वल रहता है और उसका जुनून उस पर चढ़ा रहता है. और वो किसी लोकप्रिय खेल को गाली नहीं बकता, न अपनी फजीहत के लिए किसी खेल को दोष देता है. आप पाएंगे कि अपने देश में खेल खेलने वालों से ज्यादा खेल की बात करने वाले लोग हैं और उनसे भी ज्यादा खेलों और खिलाड़ियों को गरियाने वाले लोग हैं.

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    हममें शारीरिक क्षमता और कुशलता किसी से कम नहीं है. फिर भी खेलों में हम फिसड्डी रहते हैं तो इसलिए कि खेलों के प्रति हमारे रवैया बीमार है और विकलांग है. अमेरिका के तैराक माइकल फ़ेल्प्स ने बीजिंग में आठ स्वर्ण पदक जीतकर स्वर्ण पदकों के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. जमैका तो वेस्टइंडीज का छोटा-सा द्वीप है. न कोई सुविधा न कोई पैसा. लेकिन वहां के धावक उसैन बोल्ट ने दौड़ने के दोनों रिकॉर्ड तोड़ दिए. सौ मीटर 9.69 सेकंड में और दो सौ मीटर 19.32 सेकंड में दौड़कर वे दुनिया के सबसे तेज आदमी हो गए. न जमैका बावला हुआ न अमेरिका, हम अभिनव बिंद्रा के एक स्वर्ण पदक पर ही कुरबान हो गए.

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    यह ओलंपिक में शामिल किसी खेल को नाकुछ समझने और उसमें किसी उपलब्धि को कमतर बनाने की इच्छा नहीं है. लेकिन एक स्वर्ण और दो कांस्य पदक को ओलंपिक में अपनी सबसे बड़ी उपलिब्ध मानने वाले सवा सौ करोड़ लोगों के देश की खेलों में नियति का है. अपना पड़ोसी चीन सबसे ज्यादा स्वर्ण पदकों के साथ सबसे ऊपर रहा. अमेरिका और रूस को पीछे छोड़कर चीन खेलों का महाबली हो गया है. चीन से ईर्ष्या नहीं है. वह जो भी है राष्ट्रीय लक्ष्य तय करता है उसमें पूरा राष्ट्र एक खिलाड़ी की तरह लग जाता है.

    हमें इसकी भी शर्म नहीं है कि हॉकी जैसे खेल में हम फिसड्डी रह गए क्योंकि जब हम शिखर पर थे तब दूसरों ने उसे खेलने के नियम और तरीके बदल दिए और हम देखते रह गए. अब उसे फुटबॉल जैसा खेल बना दिया गया है. वह हमारी पहुंच से बाहर कर दिया गया है. फिर भी क्रिकेट, शतरंज और बिलियड्र्स में हमारी शिखर पर जगह है. क्रिकेट में हमने ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड को हराया और दक्षिण अफ्रीका से बराबरी की. वनडे में हम पहली बार ऑस्ट्रेलिया और श्रीलंका से जीतकर आए. बीसमबीस के विश्वविजेता तो हैं ही. हमारे यहां इंडियन प्रीमियर लीग भी पहली बार खेली गई और क्रिकेट में इतना पैसा आया जितना विश्वकप में भी नहीं आता है. क्रिकेट का हर खिलाड़ी यहां खेलने को उत्सुक है. ब्लादिमीर क्रामनिक को हराकर विश्वनाथन आनंद कोई पहली बार विश्व चैम्पियन नहीं हुए हैं. वे कई बार विश्व चैम्पियन रह चुके हैं. शतरंज में हमारे यहां और भी कई ग्रैंडमास्टर हैं. महिलाएं भी इस दिमागी खेल में आगे हैं. बिलियर्ड के चैम्पियन तो अपने यहां शुरू से होते रहे हैं. सानिया मिर्जा ने अपनी होनहारी पूरी नहीं की है. लेकिन बैडमिंटन में साइना नेहवाल पहले दस में आ गई हैं. लेकिन अगला और निर्णायक कदम तभी उठेगा जब हम देखने और बात करने वाले देश के बजाय खेलने वाले देश होंगे.

    पुस्तक– आगे अंधी गली है

    लेखक– प्रभाष जोशी

    प्रकाशक– राजकमल प्रकाशन

    Tags: Books, Hindi Literature, Literature