चीन से बचने के लिए 13 दिन की यात्रा के बाद ऐसे भारत आए थे दलाई लामा

  • रेहान फ़ज़ल
  • बीबीसी संवाददाता
ल्हासा में एक आधिकारिक समारोह में संबोधन देते दलाई लामा (12 जुलाई, 1956).

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इमेज कैप्शन, ल्हासा में एक आधिकारिक समारोह में संबोधन देते दलाई लामा (12 जुलाई, 1956).

मार्च 1959 आते-आते पूरे ल्हासा में अफ़वाह फैल चुकी थी कि दलाई लामा की ज़िंदगी ख़तरे में है और चीनी उन्हें नुक़सान पहुँचा सकते हैं.

ये अफ़वाह और पुख़्ता हो गई, जब चीनियों ने दलाई लामा को 10 मार्च को ल्हासा में चीनी सेना के मुख्यालय में एक सांस्कृतिक समारोह में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया. ये सुनते ही दलाई लामा के महल नोरबुलिंगका के चारों ओर लोगों की भीड़ जमा होनी शुरू हो गई.

भीड़ को अंदेशा था कि ये आमंत्रण दलाई लामा को अपने जाल में फँसाने का चीनी षडयंत्र था. उनका मानना था कि अगर दलाई लामा उस समारोह में जाते हैं, तो उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाएगा.

ल्हासा में दलाई लामा के महल के चारों ओर जमा लोग.

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इमेज कैप्शन, ल्हासा में दलाई लामा के महल के चारों ओर जमा लोग (10 मार्च, 1959).

भारत की पूर्व विदेश सचिव निरुपमा राव अपनी हाल में प्रकाशित किताब 'द फ़्रैकचर्ड हिमालय, इंडिया तिब्बत, चाइना 1949-1962' में लिखती हैं, "लोगों की चिंता इस बात से बढ़ी कि चीनियों ने दलाई लामा से इस समारोह में अपने अंगरक्षकों के बिना आने के लिए कहा था.''

''आखिर में तय हुआ कि दलाई लामा इस समारोह में नहीं जाएँगे. बहाना ये बनाया गया कि लोगों की भीड़ को देखते हुए उनके लिए अपने महल से बाहर निकल पाना बहुत मुश्किल होगा."

उन्होंने लिखा, "16 मार्च तक ये ख़बर आने लगी कि चीनी दलाई लामा के महल नोरबुलिंगका को नष्ट करने की तैयारी कर रहे हैं. उन्होंने महल के चारों ओर तोप लाना शुरू कर दिया. इस बात की भी अफ़वाह थी कि चीनी सैनिक हवाई जहाज़ों से ल्हासा पहुंचना शुरू हो गए हैं. महल के पास फटे दो गोलों से भी ये संकेत मिलना शुरू हो गए थे कि अंत निकट है और बिना किसी देरी के कुछ बड़ा करने की ज़रूरत है."

भारत की पूर्व विदेश सचिव निरुपमा राव की हाल में प्रकाशित किताब 'द फ़्रैकचर्ड हिमालय, इंडिया तिब्बत, चाइना 1949-1962.'

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दलाई लामा ने महल छोड़ा

दलाई लामा के नज़दीकी सलाहकारों ने तय किया कि दलाई लामा को तुंरत ल्हासा छोड़ देना चाहिए. 17 मार्च की रात दलाई लामा ने भेष बदल कर अपनी माँ, छोटे भाई, बहन, निजी सहायकों और अंगरक्षकों के साथ अपना महल छोड़ दिया.

दलाई लामा अपनी आत्मकथा 'माई लैंड एंड माई पीपुल, मेमॉएर्स ऑफ़ दलाई लामा' में लिखते हैं, "हम लोग तीन समूहों में रवाना हुए, सबसे पहले दोपहर में मेरे शिक्षक और कशाग के चार सदस्य एक ट्रक के पीछे तारपोलीन के नीचे छिप कर निकले. इसके बाद मेरी माँ, मेरा छोटा भाई तेनज़िन चोग्याल, बहन सेरिंग डोलमा और मेरे चाचा भेष बदल कर निकले. मेरी माँ और बहन ने पुरुषों का वेष धारण किया हुआ था.''

वे लिखते हैं, ''रात 10 बजे मैं भी अपना चश्मा उतारकर एक साधारण तिब्बती सैनिक के भेष में चूबा और पतलून पहने हुए बाहर निकला. मेरे बाएं कंधे पर एक राइफ़ल टंगी हुई थी. मेरे साथ मेरे चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ गदरंग और मेरे अंगरक्षकों के प्रमुख और बहनोई फुंसतोंग ताशी ताकला भी थे."

घोड़ों पर भारत की सीमा की तरफ़ बढ़ते हुए दलाई लामा और उनका दल.

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इमेज कैप्शन, घोड़ों पर भारत की सीमा की तरफ़ बढ़ते हुए दलाई लामा और उनका दल (1959).
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उस मुश्किल सफ़र को याद करते हुए दलाई लामा ने लिखा, "जब हम भीड़ को पार करते हुए बाहर निकले तो हमें किसी ने नहीं पहचाना. मैंने पहचाने जाने के डर से अपना चश्मा तो उतार दिया था लेकिन मुझे सामने कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था. जब हम निकले तो हमें अंदाज़ा नहीं था कि हम अगला दिन देख भी पाएँगे या नहीं. जब हम चे-ला के ऊपर पहुंचे, तब हमें पहली बार लगा कि ख़तरा टल गया है. स्थानीय लोग हमारे लिए घोड़े ले कर आए थे. हम उन पर सवार हुए और मैंने आख़िरी बार मुड़ कर ल्हासा की तरफ़ देखा."

उस इलाके में हज़ारों चीनी सैनिक तैनात थे. इसलिए उनके पहचाने और पकड़े जाने का बहुत डर था. दलाई लामा और उनके साथियों ने पहले कीचू नदी पार की. उस नदी के दूसरे किनारे पर दो समूह उनका इंतज़ार कर रहे थे.

यहाँ पर दलाई लामा ने अपना चश्मा दोबारा लगा लिया और उन्हें चीज़ें साफ़ दिखने लगीं. दलाई लामा का दल रात भर चलता रहा. चे-ला में थोड़ी देर रुकने के बाद उन्होंने ब्रह्मपुत्र नदी पार की और तिब्बत के दक्षिण की तरफ़ बढ़ गए.

तेनज़िन तीथौंग दलाई लामा की जीवनी 'दलाई लामा: एन इलस्ट्रेटेड बायोग्राफी' में लिखते हैं, "25 मार्च को उन्होंने एक विशेष कोड के ज़रिए अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए को संदेश भेजा कि दलाई लामा सुरक्षित हैं. हर 24 घंटे पर दलाई लामा के दल की प्रगति रिपोर्ट राष्ट्रपति आइज़नहॉवर के सामने पेश की जाती रही. इस बीच दलाई लामा के बच निकलने की ख़बर पूरी दुनिया में फैल चुकी थी और दुनिया भर के अख़बार इसे अपनी मुख्य ख़बर बना रहे थे."

दलाई लामा

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इमेज कैप्शन, तिब्बत से बचकर निकलते दलाई लामा.

दलाई लामा ने नेहरू को भेजा संदेश

लुटसे ज़ोग पहुंचकर दलाई लामा ने नई तिब्बत सरकार के गठन की रस्म अदा की. इस समारोह में करीब एक हज़ार लोगों ने भाग लिया लेकिन तब तक स्पष्ट हो चुका था कि तिब्बत में रहते हुए दलाई लामा के जीवन को बहुत ख़तरा था. इसलिए भारत और अमेरिका को संदेश भेजे गए कि दलाई लामा सीमा पार कर भारत में शरण लेना चाहते हैं.

सीआईए के एक वरिष्ठ अफ़सर जॉन ग्रीनी को 28 मार्च को ये संदेश मिला. उन्होंने तुरंत दिल्ली को सूचना भेजकर दलाई लामा की मंशा के बारे में बताया.

इससे पहले 26 मार्च को दलाई लामा भारत के प्रधानमंत्री जवाहललाल नेहरू को संदेश भेज चुके थे, "पूरी दुनिया में भारत के लोग मानवीय मूल्यों के समर्थन के लिए जाने जाते हैं. हम सोना इलाके से भारत में प्रवेश कर रहे हैं. हमें आशा है कि आप भारत की धरती पर हमारे रहने का प्रबंध करेंगे. हमें आपकी मेहरबानी पर पूरी विश्वास है."

इसी दौरान दार्जिलिंग में रह रहे दलाई लामा के भाई ग्यालो थौनडुप प्रधानमंत्री नेहरू से मिल चुके थे.

वो अपनी आत्मकथा 'द नूडल मेकर ऑफ़ कलिंमपौंग' में लिखते हैं, "मैं जवाहरलाल नेहरू से उनके संसद भवन वाले दफ़्तर में मिला. इंटेलिजेंस ब्यूरो के प्रमुख बीएन मलिक की मदद से ये मुलाकात हो सकी. नेहरू ने मुझसे पहला सवाल पूछा कि दलाई लामा सुरक्षित तो हैं. मैंने जब दलाई लामा के भारत में शरण लेने के अनुरोध के बारे में उन्हें बताया तो नेहरू ने इसके लिए तुरंत 'हाँ' कर दी."

दलाई लामा के भाई ग्यालो थौनडुप की आत्मकथा 'द नूडल मेकर ऑफ़ कलिंमपौंग.'

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इमेज कैप्शन, दलाई लामा के भाई ग्यालो थौनडुप की आत्मकथा 'द नूडल मेकर ऑफ़ कलिंमपौंग.'

अगले दिन दलाई लामा झोरा गाँव से गुज़रते हुए कार्पो-ला पास पहुँचे. इस बीच एक विमान ने उनके ऊपर से उड़ान भरी. दलाई लामा के पूरे दल में इस आशंका से दहशत फैल गई कि कहीं चीनियों को उनका पता तो नहीं चल गया है.

दलाई लामा के भाई तेनज़िंग चोग्याल लिखते हैं, "हम लोग दो दलों में विभाजित हो गए और दो दिनों तक आगे बढ़ते रहे. इसी बीच हमने भारतीय सीमा पर जो संदेशवाहक भेजे थे वो हमसे आकर फिर मिल गए. उन्होंने सबसे पहले हमें ख़बर दी कि दलाई लामा को भारत में घुसने की अनुमति मिल गई है. इस बीच दलाई लामा बीमार पड़ गए. उन्हें बुख़ार ने जकड़ लिया और उनका पेट भी खराब हो गया."

दो दिन बाद 31 मार्च को भारतीय सीमा के पास पहुंच कर दलाई लामा ने उन लोगों से विदा ली जो तिब्बत में ही रहना चाहते थे. उन्होंने ख़ास तौर से दो रेडियो ऑपरेटरों अतहर और लोत्से को धन्यवाद और आशीर्वाद दिया.

31 मार्च, 1959 को दोपहर दो बजे दलाई लामा ने अब के अरुणाचल प्रदेश के तवांग ज़िले में छुताँगमू से याक की पीठ पर बैठकर भारतीय सीमा में प्रवेश किया.

भारत के अरुणाचल प्रदेश में दलाई लामा और उनका दल.

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सीमा पर उनका इंतज़ार कर रहे सहायक पोलिटिकल ऑफ़िसर टीएस मूर्ति ने उनका स्वागत करके प्रधानमंत्री नेहरू का संदेश उन्हें दिया. यहीं तय हुआ कि दलाई लामा के साथ आए सामान उठाने वाले मज़दूर वापस तिब्बत भेज दिए जाएंगे और उनका सामान अब भारतीय मज़दूर उठाएँगे.

दलाई लामा और उनके करीबी परिवार को छोड़कर उनके दल के सभी सदस्यों के हथियार भारतीय प्रशासन को सौंप दिए गए.

दलाई लामा

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विमानों ने रसद गिराई

तवांग में दलाई लामा के दल को बड़े-बड़े घरों में ठहराया गया.

तीथौंग दलाई लामा की जीवनी में लिखते हैं, "जिस दिन दलाई लामा भारत पहुँचे भारतीय वायु सेना के विमानों ने उनके दल के सदस्यों के लिए ऊपर से आटे के बोरे, जूते और रोज़मर्रा की ज़रूरत की चीज़ें गिराईं.''

वो लिखते हैं कि 6 अप्रैल को तवांग के ज़िला कमिश्नर हरमंदर सिंह ने दलाई लामा को प्रधानमंत्री नेहरू का संदेश दिया, "मैं और मेरे साथी आपका स्वागत करते हैं और भारत में सुरक्षित पहुंचने के लिए आपको बधाई देते हैं. हमें आपको, आपके परिवार और आपके दल के सदस्यों को भारत में रहने के लिए ज़रूरी सुविधाएं उपलब्ध कराने में खुशी होगी. भारत के लोग आपका बहुत सम्मान करते हैं और उनको आपकी मेहमाननवाज़ी करने में बहुत खुशी होगी."

दलाई लामा और उनका दल तवांग से 185 किलोमीटर दूर बोमडिला में कुछ दिन आराम करना चाहता था. आसाम राइफ़ल के सैनिक अरुणाचल प्रदेश के जंगलों से होते हुए दलाई लामा को बोमडिला ले गए. वहाँ पर उन्हें भारतीय सैनिकों ने गार्ड ऑफ़ ऑनर पेश किया.

निर्वासन के पहले तिब्बत में दलाई लामा (1956)

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बोमडिला में कुछ दिन रहने के बाद दलाई लामा 18 अप्रैल को तेज़पुर पहुंचे, जहाँ भारत की धरती से पहली बार उन्होंने एक बयान जारी किया.

उसमें कहा गया, "तिब्बत के लोगों ने हमेशा से आज़ादी की प्रबल इच्छा प्रकट की है. तिब्बत के लोग चीनियों से अलग हैं. हमसे चीन ने ज़बरदस्ती 17 सूत्री समझौते पर दस्तख़त करवाए थे. ल्हासा में दलाई लामा के जीवन को ख़तरा था. इसलिए तय किया गया कि वो ल्हासा छोड़ देंगें. दलाई लामा भारत के लोगों और सरकार के बहुत आभारी हैं कि उन्होंने न सिर्फ़ हमारा स्वागत किया, बल्कि हमें और हमारे अनुयायियों को शरण भी दी."

इस बीच चीन ने दलाई लामा को शरण देने के भारत के फ़ैसले पर तीव्र प्रतिक्रिया देते हुए कड़े शब्दों में अपनी नाराज़गी जताई.

तेनज़िन तीथौंग लिखते हैं, "चीन ने तेज़पुर वक्तव्य की निंदा करते हुए कहा कि तिब्बत की आज़ादी की बात करना चीन सरकार पर एक तरह से हमला है. उन्होंने कहा कि भारत ने पंचशील समझौते के तहत स्वीकार कर लिया था कि तिब्बत चीन का अंग है. चीन ने भारत पर आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का आरोप भी लगाया."

तेनज़िन तीथौंग की लिखी दलाई लामा की जीवनी 'दलाई लामा: एन इलस्ट्रेटेड बायोग्राफी.'

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चीन का ग़ुस्सा और नेहरू से मुलाक़ात

जवाहरलाल नेहरू ने तय किया कि दलाई लामा और उनके दल को मसूरी में रखा जाएगा.

18 अप्रैल को दलाई लामा एक विशेष ट्रेन से मसूरी के लिए रवाना हुए. इससे पहले अमेरिका ने पेशकश की थी कि दलाई लामा को स्विट्जरलैंड या थाईलैंड में रखा जा सकता है. लेकिन फिर तय किया गया कि भारत उनके रहने के लिए आदर्श जगह हो सकती है, क्योंकि यहाँ से वो तिब्बत में रह रहे अपने लोगों से संपर्क में रह सकते हैं.

मसूरी पहुंचते ही दलाई लामा को बिड़ला हाउस ले जाया गया, जहाँ वो अगले एक साल तक रहे. 24 अप्रैल को नेहरू दलाई लामा से मिलने मसूरी आए. उनके बीच चार घंटे तक तनावपूर्ण वातावरण में बातचीत हुई.

दलाई लामा अपनी आत्मकथा 'माई कंट्री माई पीपुल' में लिखते हैं, "मुझे लगा कि बातचीत के दौरान जब भी मैंने नेहरू के सामने ल्हासा के बाहर तिब्बत सरकार के गठन की इच्छा प्रकट की वो मुझसे कई बार खीझे. जब मैंने बिना ख़ून-ख़राबे के तिब्बत की आज़ादी की कोशिश की बात की, तो उन्होंने कई बार मेज़ पर अपना हाथ मारा और ग़ुस्से से उनका निचला होंठ काँपने लगा.''

नेहरू ने इसको ये कह कर ख़ारिज किया कि ये संभव नहीं है. उन्होंने दो टूक शब्दों में मुझसे कहा कि तिब्बत की तरफ़ से लड़ना संभव नहीं हो सकेगा.''

उन्होंने कहा, 'इस तरह के किसी सुझाव से भी हमारी मुहिम को धक्का लगेगा. वर्तमान समय में तिब्बत के प्रति हमारी सहानुभूति का ये मतलब नहीं है कि हम चीन के ख़िलाफ़ गतिरोध में उसकी मदद करने जा रहे हैं."

दलाई लामा के भारत आने के कुछ दिनों बाद अप्रैल 1959 में प्रधानमंत्री नेहरू उनसे मिलने मसूरी आए.

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उधर, चीन को जैसे ही दलाई लामा के बच निकलने की ख़बर मिली उसने तिब्बती लोगों पर अत्याचार करने शुरू कर दिए.

19 मार्च को हजारों महिलाएँ चीन के खिलाफ़ नारे लगाते हुए दलाई लामा के समर्थन में सड़कों पर उतर आईं. उसी रात चीनियों ने नौरबुलिंगका महल पर गोले बरसाए और कुछ गोले दलाई लामा के निजी निवास पर भी गिरे.

कई जगह दलाई लामा का समर्थन कर रहे लोगों पर गोलियाँ चलाई गईं. चीनी गोलाबारी में पहाड़ के ऊपर 15वीं शताब्दी में बना तिब्बती मेडिकल कॉलेज पूरी तरह से नष्ट हो गया.

23 मार्च को चीनी सैनिकों ने पोटाला महल पर चीन का झंडा लहरा दिया. 24 मार्च आते-आते तिब्बती लोगों के विद्रोह को पूरी तरह से कुचल दिया गया. 28 मार्च को तिब्बत की स्थानीय सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया गया और चीन का विरोध करने वाले लोगों को देशद्रोही की संज्ञा दी गई.

चीन के चोटी के नेता माओत्से तुंग को 1954 में बीजिंग में सिल्क का स्कार्फ़ भेंट करते दलाई लामा.

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इमेज कैप्शन, चीन के चोटी के नेता माओत्से तुंग को 1954 में बीजिंग में सिल्क का स्कार्फ़ भेंट करते दलाई लामा.

चीनियों ने दलाई लामा के गायब होने पर कहा कि प्रतिक्रियावादी ताकतें उनका ज़बरदस्ती अपहरण कर भारत ले गई हैं. सितंबर, 1959 में दलाई लामा ने दिल्ली में नेहरू से मिलकर तिब्बत के मामले को संयुक्त राष्ट्र में उठाने की माँग की जिसे नेहरू ने सिरे से ख़ारिज कर दिया.

दलाई लामा के भारत में शरण लेने के बाद करीब 80 हज़ार तिब्बती लोग उनके पीछे-पीछे भारत आए. उनको तेज़पुर के पास मिसामारी और भूटान की सीमा के पास बक्सादुआर शरणार्थी शिविरों में ठहराया गया.

बाद में भारत सरकार ने दलाई लामा और उनके साथियों को धर्मशाला में बसाने का फ़ैसला किया.

चीनी सैनिकों के सामने हथियार डालते तिब्बत के विद्रोही.

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दलाई लामा को भारत में शरण देने के दूरगामी परिणाम

दलाई लामा को भारत में शरण दिए जाने के बाद से ही भारत चीन संबंधों में खटास आनी शुरू हो गई. भारत में आम लोगों की सहानुभूति भी दलाई लामा के साथ थी.

मुंबई में चीनी वाणिज्य दूतावास के सामने तिब्बत की घटनाओं का विरोध करते हुए लोगों ने भवन की दीवार पर लगे माओत्से तुंग के चित्र पर टमाटर और सड़े हुए अंडे फेंके. दिल्ली में चीन के दूतावास ने विदेश मंत्रालय के दिए लिखित नोट में इसे चीनी नेता का बहुत बड़ा अपमान बताया.

अगले दिन चीन के विदेश उप मंत्री जी पेंग फ़ी ने बीजिंग में भारतीय राजदूत जी पार्थसार्थी को बुलाकर चीन के प्रिय नेता और राष्ट्राध्यक्ष का अपमान करने के लिए अपना सख़्त विरोध प्रकट किया.

इसके बाद भारत चीन संबंध बिगड़ते चले गए और इसकी परिणिति 1962 में भारत-चीन युद्ध के रूप में हुई.

वीडियो कैप्शन, चीन के मामले में क्या पीएम मोदी ने दिखाई हिम्मत?

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