दलाई लामा का 88वां जन्मदिन आज:चीन से तनाव के चलते 1959 में भागकर भारत पहुंचे, कहा- मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा

10 महीने पहले
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दलाई लामा को तिब्बत का सबसे बड़ा धर्मगुरु कहा जाता है। चीन से तनाव के बीच दलाई लामा पिछले 64 साल से हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में रह रहे हैं। चीन लगातार उन्हें अलगाववादी और तिब्बत के लिए खतरा बताता रहा है। हालांकि, दलाई लामा को अलग-अलग मौकों पर वर्ल्ड लीडर्स का सपोर्ट मिला है।

2010 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चीन के विरोध के बावजूद दलाई लामा से मुलाकात की थी। उन्हें 1989 में नोबेल पीस प्राइज से सम्मानित किया गया था। द गार्जियन के मुताबिक, मौजूदा दलाई लामा ने कुछ साल पहले संकेत दिए थे कि अब वो पुनर्जन्म नहीं लेंगे। उन्होंने ये भी कहा था कि अगर उनका दोबारा जन्म हुआ तो ये चीन और तिब्बत के बाहर होगा, ताकि चीन इसमें दखलंदाजी न कर सके।

दरअसल, दलाई लामा से जारी विवाद के बीच 2011 में चीन के विदेश मंत्रालय ने घोषणा की थी कि वो सिर्फ उसी दलाई लामा को मान्यता देंगे जिसे चीन की सरकार अप्रूव करेगी। चीन तिब्बती बौद्ध धर्म की परंपरा में अपने लोगों की नियुक्ति करना चाहता है, जिससे तिब्बत में किसी विद्रोह की आशंका न रहे।

सबसे पहले इस ग्राफिक के जरिए मौजूदा दलाई लामा को जानिए...

6 जुलाई 1935 को पैदा हुए 14वें दलाई लामा का आज जन्मदिन है। इस मौके पर हम आपको बताएंगे कि दलाई लामा कौन होते हैं, ये कैसे चुने जाते हैं और चीन से इनका क्या विवाद है। साथ ही ये भी जानिए कि दलाई लामा भारत कब और क्यों आए थे और कैसे ये 1962 की भारत-चीन जंग की वजह बने थे…

1940 में 14वें दलाई लामा बने थे ल्हामो थोंडुप
दलाई लामा एक मंगोलियाई पद है, जिसका मतलब होता है ज्ञान का महासागर। तिब्बत में अब तक 14 दलाई लामा रह चुके हैं। ल्हामो थोंडुप को 22 फरवरी 1940 को 14वां दलाई लामा घोषित किया गया था। तब उनकी उम्र महज 5 साल थी। उन्हें तेनजिन ग्यात्सो भी कहा जाता है। 1937 में जब तिब्बत के धर्मगुरुओं ने दलाई लामा को देखा तो पाया कि वो 13वें दलाई लामा थुबतेन ग्यात्सो के अवतार थे। सभी टेस्ट पार करने के बाद धर्मगुरुओं ने दलाई लामा को धार्मिक शिक्षा दी।

तस्वीर 1937 की है, जब तिब्बिती धर्मगुरुओं ने पहली बार ल्हामो थोंडुप को देखा था।
तस्वीर 1937 की है, जब तिब्बिती धर्मगुरुओं ने पहली बार ल्हामो थोंडुप को देखा था।

कैसे शुरू हुई दलाई लामा चुनने की प्रक्रिया
1357 से 1419 तक तिब्बत में एक धर्मगुरु हुए, जिनका नाम जे सिखांपा था। इन्होंने 1409 में तिब्बत में एक स्कूल शुरू किया था। नाम रखा जेलग स्कूल। इसी स्कूल में एक होनहार छात्र थे गेंदुन द्रुप। आगे चलकर गेंदुन ही पहले दलाई लामा बने। 1630 के दशक में बौद्धों और तिब्बतियों के बीच नेतृत्व को लेकर लड़ाइयां शुरू हो गई थीं। आखिरकार 5वें दलाई लामा तिब्बत को एक करने में कामयाब रहे।

13वें दलाई लामा ने 1912 में तिब्बत को स्वतंत्र घोषित कर दिया। उस समय तो चीन ने कोई आपत्ति नहीं जताई, लेकिन करीब 40 साल बाद जब चीन में कम्युनिस्ट सरकार बनी, तब चीन के लोगों ने तिब्बत पर हमला कर दिया। उस हमले में तिब्बतियों को कोई कामयाबी नहीं मिली।

ये तस्वीर 1935 की है। इसमें दलाई लामा अपनी मां डेकी त्सेरिंग और पिता चोएकयोंग त्सेरिंग के साथ नजर आ रहे हैं।
ये तस्वीर 1935 की है। इसमें दलाई लामा अपनी मां डेकी त्सेरिंग और पिता चोएकयोंग त्सेरिंग के साथ नजर आ रहे हैं।

कैसे मिलते हैं अगले दलाई लामा
द गार्जियन की रिपोर्ट के मुताबिक, दलाई लामा को चुना नहीं बल्कि ढूंढा जाता है। दरअसल, तिब्बती ऐसा मानते हैं कि दलाई लामा के पास खुद इस बात का चुनाव करने की पावर होती है कि वो किस शरीर में अगला जन्म लेंगे। दलाई लामा की मौत के बाद अगले लीडर ढूंढने की जिम्मेदारी दूसरे लामा और तिब्बत की सरकार की होती है।

दलाई लामा के अंतिम संस्कार के बाद बाकी लामा ये देखते हैं कि वहां से धुआं किस दिशा की तरफ बढ़ रहा है। उसी दिशा में अगले दलाई लामा की खोज शुरू की जाती है। कई बार लामाओं को इससे जुड़े सपने भी आते हैं। सभी लामा तिब्बत की पवित्र झील ल्हामो ला-त्सो के पास तप भी करते हैं, जिससे उन्हें अगले दलाई लामा से जुड़े संकेत मिल सकें।

दरअसल, तिब्बतियों में ऐसी मान्यता है कि इस झील की देवी ने पहले दलाई लामा से वादा किया था कि वो दलाई लामा के रीइन्कार्नेशन लाइन यानी पुनर्जन्म के जरिए आगे बढ़ने वाले वंश की रक्षा करेंगी।

इसके अलावा ये भी देखा जाता है कि दलाई लामा की मौत के वक्त बुद्धिस्ट कम्युनिटी में कौन-कौन से बच्चे पैदा हुए थे। एक बार जब बच्चे का चयन हो जाता है तब उसके कई टेस्ट लिए जाते हैं। इनमें से सबसे मुख्य टेस्ट होता है पिछले दलाई लामा से जुड़ाव का।

चुने गए बच्चे के सामने पिछले दलाई लामा की कुछ चीजें रखी जाती हैं, जैसे छड़ी, घंटी, माला और डमरू। इसके बाद उससे मिलती-जुलती दूसरी चीजें भी वहां रखी जाती हैं। बच्चे को उनमें से दलाई लामा के सामान को पहचानना होता है।

तस्वीर 22 फरवरी 1940 की है, जब ल्हामो थोंडुप को ऑफिशियली 14वां दलाई लामा घोषित किया गया था।
तस्वीर 22 फरवरी 1940 की है, जब ल्हामो थोंडुप को ऑफिशियली 14वां दलाई लामा घोषित किया गया था।

अगर लामाओं ने एक ही बच्चे का चयन किया होता है तो दूसरे सीनियर स्पिरिचुअल लीडर्स के साथ चर्चा के बाद दलाई लामा की घोषणा कर दी जाती है। अगर लामाओं को एक से ज्यादा बच्चों में दलाई लामा की झलक दिखती है तो फिर एक गोल्डन अर्न यानी कलश में नाम की पर्ची रखकर जनता से चुनने के लिए कहा जाता है।

दलाई लामा की घोषणा के बाद चुने गए बच्चे को ल्हासा ले जाया जाता है, जहां उसे आध्यात्मिक गुरु बनाने के लिए बौद्ध धर्म के साथ-साथ कई दूसरे विषयों की शिक्षा दी जाती है। 14वें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो के मिलने में 4 साल का समय लगा था।

1949 में चीन ने तिब्बत पर किया हमला
1949 में चीन के लोगों ने तिब्बत पर आक्रमण किया। चीन का यह आक्रमण तब हुआ जब वहां 14वें दलाई लामा को चुनने की प्रक्रिया चल रही थी। तिब्बत को इस लड़ाई में हार का सामना करना पड़ा था। जब तिब्बत पर हमला हुआ था, तब चीन में माओ त्से तुंग के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट सरकार थी। माओ त्से तुंग ही थे, जिनके सत्ता में आने के बाद चीन विस्तारवाद पर उतर आया।

तस्वीर 28 नवंबर 1956 की है। चीन के प्रधानमंत्री झोऊ एन-लाई 12 दिन के दौरे पर भारत आए थे। उनके साथ दलाई लामा भी आए थे। (बाएं से दूसरे नंबर पर दलाई लामा, चौथे पर झाऊ एन-लाई, पांचवें पर जवाहर लाल नेहरू और छठे पर इंदिरा गांधी)
तस्वीर 28 नवंबर 1956 की है। चीन के प्रधानमंत्री झोऊ एन-लाई 12 दिन के दौरे पर भारत आए थे। उनके साथ दलाई लामा भी आए थे। (बाएं से दूसरे नंबर पर दलाई लामा, चौथे पर झाऊ एन-लाई, पांचवें पर जवाहर लाल नेहरू और छठे पर इंदिरा गांधी)

पहली बार 1956 में चीन के लीडर के साथ भारत आए थे दलाई लामा
दलाई लामा की ऑफिशियल वेबसाइट के मुताबिक, जब 1956 में चीन के उस समय के प्रधानमंत्री झाऊ एन-लाई भारत दौरे पर आए थे, तब उनके साथ दलाई लामा भी मौजूद थे। दोनों नेताओं ने तब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात की थी।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार उस समय दलाई लामा ने नेहरू के सामने तिब्बत की आजादी की बात छेड़ दी थी। हालांकि, नेहरू ने उन्हें समझाया था कि वो तिब्बत की आजादी की बात छोड़कर उसकी ऑटोनॉमी यानी स्वायत्ता की चाह रखें।

तस्वीर 1959 की है, जब दलाई लामा 14 दिन की यात्रा कर भागकर भारत आए थे।
तस्वीर 1959 की है, जब दलाई लामा 14 दिन की यात्रा कर भागकर भारत आए थे।

बीजिंग ने अकेले मिलने बुलाया, जान का खतरा देख भारत भागे थे दलाई लामा
एपिक चैनल की एक डॉक्यूमेंट्री दलाई लामा- द ग्रेट एस्केप के मुताबिक, भारत दौरे के कुछ साल बाद चीन की सरकार ने दलाई लामा को बीजिंग बुलाया। साथ ही शर्त भी रखी कि वो अकेले ही आएं। यानी उनके साथ न कोई सैनिक आए, न कोई बॉडीगार्ड और न ही कोई उनका समर्थक।

उस समय दलाई लामा के एक ऑस्ट्रेलियाई दोस्त भी थे। नाम था हेंरिच्क हर्रेर। हेंरिच्क ने उन्हें सलाह दी कि अगर वो बीजिंग अकेले गए, तो उन्हें हमेशा के लिए पकड़ लिया जाएगा। जान का खतरा देखते हुए मार्च 1959 में दलाई लामा सैनिक के वेश में तिब्बत से भागकर भारत आ गए। उन्हें भारत आने में 14 दिन का वक्त लगा था।

दलाई लामा अरुणाचल प्रदेश के तवांग को पार कर भारत आए थे। इसके बाद अप्रैल 1959 में भारत ने दलाई लामा को शरण दी। जिस वक्त उन्हें शरण दी गई, उस वक्त उनकी उम्र महज 23 साल थी। इसके बाद अगले एक साल में करीब 80 हजार तिब्बती दलाई लामा के पीछे-पीछे भारत पहुंचे थे।

चीन से नाराज होकर भारत में नेहरू सरकार ने दलाई लामा को शरण देने का फैसला किया था।
चीन से नाराज होकर भारत में नेहरू सरकार ने दलाई लामा को शरण देने का फैसला किया था।

चीन ने अक्साई चिन पर बनाई सड़क, नाराज भारत ने दलाई लामा को शरण दी
1947 में भारत की आजादी और 1949 में चीन में कम्युनिस्ट सरकार के बनने के बाद चीन-भारत के बीच विवाद शुरू हो गए थे। 1957 में चीन के शिनहुआ अखबार में छपा था कि दुनिया का सबसे ऊंचा हाईवे शिन्जियांग से लेकर तिब्बत के बीच बनाया गया है। भारत को भी इसकी जानकारी अखबार से ही मिली। इस हाईवे की सड़क अक्साई चिन से भी गुजरी, जो भारत का हिस्सा था।

इस पर उस समय के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने झाऊ एन-लाई को पत्र भी लिखा, लेकिन झाऊ ने सीमा विवाद का मुद्दा उठा दिया। इसी के बाद 1959 में भारत ने दलाई लामा को शरण दे दी। इससे चीन और बौखला गया।

तस्वीर 1962 की है। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने LAC पहुंचकर सेना के जवानों से मुलाकात की थी।
तस्वीर 1962 की है। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने LAC पहुंचकर सेना के जवानों से मुलाकात की थी।

कैसे 1962 में जंग की एक वजह बने दलाई लामा
1962 में जब भारत और चीन के बीच युद्ध हुआ, तो उसकी कई वजहें भी सामने आई थीं। एक वजह ये भी थी कि चीन के सैनिक भारतीय इलाकों में घुस आए थे और इन सैनिकों को वापस लौटाने के लिए चीन ने एक शर्त रखी। ये शर्त थी नया व्यापारिक समझौता। भारत ने इस व्यापारिक समझौते पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया और कहा कि चीन जब तक 1954 की स्थिति पर नहीं आता, तब तक कोई समझौता नहीं होगा।

उसके बाद 13 सितंबर 1962 को चीन ने फिर प्रस्ताव रखा कि अगर भारत हस्ताक्षर करने को तैयार होता है, तो उसकी सेना 20 किमी पीछे जाने को तैयार है। भारत इस पर तैयार भी हो गया, लेकिन चीन ने हमला कर दिया।

1962 की लड़ाई के बाद स्वीडन के एक पत्रकार बेर्टिल लिंटर की एक किताब आई थी। इस किताब का नाम था "चाइनीज वॉर विद इंडिया'। इस किताब में लिंटर ने बताया था कि जंग से ठीक पहले समय चीन की हालत बहुत खराब हो गई थी। वहां अकाल पड़ गया था। इसमें 3-4 करोड़ लोग मारे गए थे।

इन सबसे ध्यान भटकाने के लिए माओ त्से तुंग को एक बाहरी दुश्मन की जरूरत थी। ऐसे में उनकी नजर सबसे पहले दलाई लामा पर पड़ी। वो हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में रह रहे थे। दलाई लामा को शरण दिए जाने से चीन में आक्रोश था और चीन की सरकार तो पहले ही इससे बौखला गई थी। चीन भारत को सबक सिखाना चाहता था और इसलिए तमाम शांति की कोशिशों के बावजूद चीन ने भारत पर हमला कर दिया था।

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