धर्म क्या है?

धर्म क्या है?

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धर्म क्या है, इसे समझने और व्याख्यायित करने का प्रयास प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक के विद्वानों द्वारा किया जाता रहा है। धर्म देश, काल, जाति, समुदाय तथा समस्त प्राणधारियों के जीवन में प्रवहमान अनुशासन और नियम की धारा है। वह भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नतियों का मूल है। सच्चरित्रता उसकी कसौटी है। किसी से द्रोह न करना, सत्य का पालन करना, समस्त प्राणियों को यथायोग्य उनका भाग प्रदान करना, सभी के लिए हृदय में दयाभाव रखना, मन तथा इन्द्रियों का संयमपूर्ण सामंजस्य बनाए रखना, चारित्रिक पवित्रता बनाए रखना तथा शीलपूर्ण जीवन का व्यवहार बनाए रखना ही सच्चा धर्म है। 

पश्चिम के विद्वानों द्वारा ईसाई धर्म को केंद्र में रखकर धर्म की व्याख्या की गई है। ईसाई धर्म की मान्यताओं और परंपराओं को आधार बनाकर पश्चिम के विद्वानों द्वारा धर्म की व्याख्या की गई है। उसी आधार पर हिंदू धर्म को भी व्याख्यायित करने का प्रयास किया गया है। परंतु हिंदू धर्म ईसाई धर्म से पूर्णतया भिन्न है। हिंदू धर्म की मान्यताएं, विचार पद्धति और उद्देश्य ईसाई धर्म से पूर्णतया भिन्न हैं। हिंदू धर्म शुष्क आध्यात्मिक धर्म नहीं वरन जीवन पद्धति है।

अतः ‘रिलीजन’ की तरह ‘धर्म’ शब्द सीमित और संकुचित अर्थवाला नहीं है। उदाहरणार्थ वेद केवल पारलौकिक सुख प्राप्ति का मार्ग बताकर ही नहीं रह जाते, अपितु इस लोक में सर्वांगीण उन्नति और समृद्धि पथ का भी प्रदर्शन करते हैं।

मानव कल्याण ही धर्म है

धर्म मानवता की रक्षा के लिए मंगलकारी विधान है। उसके प्रारम्भ, मध्य और अन्त में कल्याण ही कल्याण निहित होता है। वह एक सार्वभौम अवधारणा है। डॉ. राधाकृष्णन ने ठीक ही कहा है “धर्म का उद्देश्य इस विश्व की विभाजित चेतना, कलहों और द्वन्द्वों से हमें ऊपर उठाकर : ‘, सामरस्य, स्वतन्त्रता और प्रेम की दुनिया विकसित करने में हमारी मदद करता है।” 

नैतिक आचरण, सदाचार, परदुःखकातरता, सेवा, समर्पण, मानवीय मूल्यों में आस्था तथा निरभिमानता के अभाव में समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती। धर्म विहीन समाज की भयावहता का अनुमान भी त्रासद है। 

सत्य ही सब धर्मों का मूल है

सत्य ही धर्म है। इसी कारण जब कोई सत्य बोलता है, तब ज्ञानी लोग कहते हैं कि यह धर्म कहता है और धर्म बोलने पर कहते हैं कि यह सत्य कहता है। 

इसी कारण शास्त्रों में कहा गया है-
न हि सत्यात् परो धर्मो नानृतात् पातकं परम्।
अर्थात सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और झूठ से बढ़कर पाप नहीं है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है –
धर्म न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना ॥ 

सत्य ही सब धर्मों का मूल है-
सत्य मूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान विदित मनु गाए।।

सत्य को धर्म का मूल मानते हुए शास्त्रों में यह भी बताया गया है कि किस प्रकार का सत्य बोलना चाहिए और किस प्रकार का सत्य नहीं बोलना चाहिए।

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । 
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः॥ 

अर्थात सत्य एवं प्रिय वचन बोलना चाहिये। अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिये। प्रिय किंतु असत्य भी नहीं बोलना चाहिये। यही सनातन धर्म है। इसका अर्थ हुआ – अप्रिय सत्यवादन भी अधर्म है।

श्रीमद्भागवत में सत्य से संबंधित एक संदर्भ दिया गया है। इसमें राजा परीक्षित् वृषभ-रूपधारी धर्म एवं गोरूपधारिणी पृथ्वी के दर्शन करके उनसे कहते हैं कि आप साक्षात् धर्म हैं। सतयुग में आपके तप, पवित्रता, दया और सत्य चार चरण थे। अधर्म के कारण, आसक्ति और मद से तीन चरण नष्ट हो गये हैं। चौथा चरण ‘सत्य’ का बचा है।

अहिंसा ही धर्म है

महाभारत में अहिंसा को धर्म तथा हिंसा को अधर्म बतलाया गया है—
अहिंसालक्षणो धर्मो हिंसा चाधर्मलक्षणा ॥ 

अहिंसा को परम धर्म माना गया है— अहिंसा परमो धर्मः । 

‘अहिंसा’ धर्म का एक अन्यतम सिद्धान्त है। धर्म का यह सिद्धान्त सर्वथा पृथक् आधार पर खड़ा है। जिस प्रकार सारे क्लेशों का मूल अविद्या है, उसी प्रकार सारे यम का मूल अहिंसा है। 

हिंसा तीन प्रकार की है- 

(1) शारीरिक – किसी प्राणी का प्राण हरण करना अथवा अन्य प्रकार से शारीरिक पीड़ा पहुँचाना, 

(2) मानसिक – मन को क्लेश देना या मन से किसी का अहित करना या बुरा चाहना, 

(3) आध्यात्मिक – अन्तःकरण को मलिन करना | यह राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, भवादि तमोगुण वृत्ति से मिश्रित होती है। 

आचरण ही धर्म है

भारतीय आचार्य धर्म के सिद्धान्त निरूपण तक ही सीमित नहीं रहे, उन्होंने धर्म के व्यावहारिक पक्ष पर अधिकाधिक बल दिया। यही कारण है कि सभी आगम ग्रन्थ आचार (आचरण) को प्रथम स्थान प्रदान करते हैं। धर्म मनुष्य जीवन की आचार संहिता है, जो हमें कर्तव्य पालन की शिक्षा देता है या व्यष्टि जीवन को समष्टि में विलीन करने का उपदेश देता है। आचार ही धर्म का आधार है और धर्म के स्वामी हैं अविनाशी भगवान्।

अतः वसिष्ठ एवं महाभारतकार ने आचार को ही धर्म या परम धर्म घोषित किया।

आचारः परमो धर्मः सर्वेषामिति निश्चयः। ( वसिष्ठ स्मृति ) 

सदाचारो हि धर्मः। ( महाभारत ) 

महर्षि व्यास के अनुसार –
सर्वांगमानामाचारः प्रथमं परिकल्पते।
आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः॥

प्रश्न उठता है कि किस प्रकार का आचरण धर्म है? इस संबंध में कहा गया है कि जिस आचरण का समर्थन वेद करे उसे धर्म कहते हैं और जो वेद की दृष्टि से निषिद्ध है उसे अधर्म कहते हैं।

विवेक और तत्त्वज्ञानपूर्वक अंगीकार की गई आचरण की श्रेष्ठता धर्म का सच्चा आधार है इसीलिए मनु ने कहा कि धर्म ही मानव जगत् का रक्षक एवं पोषक है। उसके बिना वह असहाय और असुरक्षित होगा। यदि हमने धर्म को मार दिया तो धर्म भी हमें मार डालेगा; और यदि हम धर्म की रक्षा करेंगे तो वह भी हमारी रक्षा करेगा। अतः धर्म की रक्षा अपने प्राणों से बढ़कर करनी चाहिए।

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः 
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् । 

महाभारत में एक स्थान पर कहा गया है

यतो धर्मस्ततो जयः – ‘जहाँ-जहाँ धर्म, वहाँ वहाँ विजय’ । 

यह सर्वप्रसिद्ध वचन कौरवों की माता गान्धारी के मुख से निकला है। महाभारत के युद्ध से पूर्व जब युधिष्ठिर गांधारी का आशीर्वाद प्राप्त करने उनके पास आते हैं तब गांधारी युधिष्ठिर से कहती हैं- यतो धर्मस्ततो जयः। और दुर्योधन भी आता तो भी यही कहती हैं – यतो धर्मस्ततो जयः। इसका तात्पर्य यही था कि ‘धर्मानुसार आचरण करने पर ही तुमलोगों का कल्याण होगा। 

कर्तव्य ही धर्म है

हितोपदेश में, मनुस्मृति में और भगवद्गीता में ‘धर्म’ शब्द कर्तव्य का बोधक है। मानवोचित कर्तव्य की कायिक, वाचिक, मानसिक प्रतिज्ञा करके उसका यथावत् पालन करना ही धर्म है। सनातन धर्म में धर्म का अत्यधिक व्यापक अर्थ होने के कारण उसका प्रभाव मनुष्य के प्रत्येक कार्य पर पड़ता है। इसी कारण रीति-रस्म, आचार-विचार, प्रतिदिन के साधारण से साधारण कार्य के सम्बन्ध में हम कहते हैं कि ऐसा करना न करना धर्म अथवा अधर्म है।

छान्दोग्योपनिषद् में धर्म से तात्पर्य है – आश्रमों के विशिष्ट कर्तव्य और आश्रमों से सर्वांग जीवन का संतुलित, संयमित एवं समन्वित स्वरूप निर्धारिण। इस प्रकार धर्म सारे जीवन के कर्तव्यों से अपना सम्बन्ध रखता है।

 कर्तव्य को धर्म मानने के कारण वृत्ति के अनुकूल कार्य को भी धर्म कहते हैं, जैसे – याजक का धर्म, कृषक का धर्म, व्यवसायी का धर्म इत्यादि। 

कतिपय विशिष्ट व्यापारों की समष्टि को भी धर्म कहा जाता है, जैसे – जागतिक धर्म, लौकिक धर्म, सामाजिक धर्म, दैहिक धर्म और मानसिक धर्म आदि।

जो वेदों में वर्णित है वही धर्म है

मानव मात्र के लिए कल्याणकारी धर्म का मूल वेद है, वह सिद्धान्त कथन ही नहीं करता, सिद्धान्तों के क्रियान्वयन पर बल देता है। 

वेदविहितकर्मजन्यो धर्मः, निषिद्धस्तु अधर्मः

अर्थात वेद में जो कहा गया है, उसे धर्म कहते हैं। उसके विपरीत सब कुछ अधर्म है।

मनुस्मृति में भी कहा गया है – 

वेदोऽखिलो धर्ममूलम्। 

अर्थात् अखिल धर्म का मूल वेद है। वेद प्रतिपादित कर्म ही धर्म है।

कौन-कौन आचार-विचार विशुद्ध धर्म हैं और कौन पाप हैं—इसकी कसौटी एकमात्र वेद है, यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है। मनु कहते हैं –

धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः । 

अर्थात् धर्माधर्म का निर्णायक परम प्रमाण केवल वेद है। 

मनुस्मृति के टीकाकार कुल्लूक भट्ट भी ‘श्रुतिप्रमाणको धर्मः – धर्म की यह परिभाषा स्वीकार करते हैं। 

वेद में जिसकी प्रेरणा की गयी है, वह धर्म है, ऐसा मीमांसाकार जैमिनि ऋषि ने स्वीकार किया है।

वेदविहितप्रयोजनवदर्थो धर्मः। 

अर्थात् वेदविहित और फल देनेवाला अर्थ धर्म कहलाता है।

दूसरे का उपकार करना ही धर्म है

श्रीरामचरितमानस में श्रीराम ने अपने भाइयों को धर्म का तत्त्व समझाते हुए कहा है—

परहित सरिस धरम नहिं भाई । 

सूर्य, चन्द्र, वायु, पृथ्वी आदि, जो जगजीवन के आधार हैं, निरन्तर परहित में संलग्न रहते हैं। सूर्य अपने लिये नहीं तपते, बादल अपने लिये पानी नहीं बरसाते, पृथ्वी अपने लिये फल-अन्न, पुष्प नहीं उत्पन्न करती, जल और वायु अपने प्राण की रक्षा के लिये नहीं बहते — ये सब परहित में संलग्न हैं। यही वास्तविक धर्म है।

ईश्वर का स्मरण ही धर्म है

महाभारत के अनुशासन पर्व में शय्या पर पड़े हुए भीष्म से युधिष्ठिर पूछते हैं – 

को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः।
किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात्॥

पूज्यवर! आपकी दृष्टि में सब धर्मों में कौन-सा धर्म सर्वश्रेष्ठ है? 

और भीष्म उत्तर देते हैं —

एप मे सर्वधर्माणां धर्मोऽधिकतमो मतः। 
यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा॥

अर्थात सबके स्रष्टा, सबके पालक और सबका उपकार करने वाले भगवान् पुण्डरीकाक्ष का एकान्त निष्ठापूर्वक निरन्तर स्तवन करने को ही मैं सबसे बड़ा धर्म मानता हूँ। 

परमात्मा में आस्था ही धर्म है

आत्मा और परमात्मा की सत्ता में विश्वास और इस विश्वास के आधार पर परमात्मा की भक्ति और तदनुकूल आचरण को धर्म कहा जाता है। परमात्मा में विश्वास धर्म का आवश्यक अंग है। ईश्वर में विश्वास के आधार पर ही धर्म खड़ा होता है। 

ईश्वर पर विश्वास के बिना धर्म, धर्म नहीं रहेगा। ईश्वर पर विश्वास हृदय की गहराई में बसने वाला, श्रद्धा से सींचा हुआ, मन की भावनाओं में रहने वाला दृढ़ विश्वास होना चाहिये। इस विश्वास का प्रभाव मन, वचन और कर्म में स्पष्ट दिखाई देना चाहिये।

वर्णाश्रम धर्म ही हिंदू धर्म है

कही-कहीं हिंदू धर्म को वर्णाश्रम धर्म नाम से अभिहित किया गया है। इसका कारण यह है कि वर्णाश्रम व्यवस्था हिंदू धर्म की एक महत्त्वपूर्ण व्यवस्था है। अन्य किसी धर्म में इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं है। 

जो संसार की स्थिति का कारण है तथा प्राणियों की लौकिक उन्नति और मोक्ष का हेतु है और वर्णाश्रम धर्मावलम्बियों द्वारा जिसका अनुष्ठान किया जाता है, उसे धर्म कहते हैं।

धर्म अनुभूति की वस्तु है

हिंदू धर्म प्रत्यक्ष अनुभूति या साक्षात्कार का धर्म है। धर्म हृदय की वस्तु है। केवल मन्दिर जाकर दो बार सिर झुकाने अथवा चारों धाम घूम आने से ही धर्म सम्पादन नहीं हो जाता। धर्म केवल सुनने या मान लेने की चीज नहीं है, समस्त मन-प्राण विश्वास के साथ एक हो जाय – यही धर्म है।’

धर्म का अर्थ है आत्मानुभूति, परंतु केवल कोरी बहस, खोखला विश्वास, अँधेरे में टटोलबाजी तथा तोते के समान शब्दों को दुहराना और ऐसा करने में धर्म समझना एवं धार्मिक सत्य से कोई राजनीतिक विष ढूँढ़ निकालना – यह सब धर्म बिल्कुल नहीं है।

अपने पूर्ण रूप में यह धर्म सब प्रकार की अध्यात्म-आराधना तथा उसकी अनुभूति का स्वतन्त्रतात्मक तथा सहिष्णुतापूर्ण समन्वय रहा है। यही कारण है कि एक ही सत्य को अपनी-अपनी अनुभूति के आधार पर लोगों ने अलग-अलग प्रकार से विश्लेषित किया है। हिंदू धर्म की विशिष्टिता यह है कि इसने विश्लेषण के सभी आधारों को स्वीकार किया है, किसी भी दृष्टि का बहिष्कार नहीं किया।

धर्म एक देवता हैं

  • पौराणिकों ने धर्म को देवता माना है। धर्म को साक्षात् ब्रह्मा का मानसपुत्र माना गया है। 
  • मत्स्यपुराण तथा महाभारत के आदिपर्व के अनुसार इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा जी के दाहिने स्तन से हुई थी।
  • इनका वर्ण श्वेत है। इनके वस्त्र, कुण्डल, आभूषण, गन्धमाल्यादि भी सभी श्वेत ही हैं।
  • त्रयोदशी इनकी तिथि मानी गयी है।
  • इनके माता-पिता का नाम भावदेव तथा दया और कहीं श्रद्धा देवी भी बतलाया गया है। 
  • महाभारत के अनुसार इनकी स्त्रियों की संख्या दस है। किंतु भागवत में एक स्थान पर इनकी 10 पत्नियां तथा दूसरे स्थान पर 13 पत्नियों का उल्लेख किया गया है। विष्णुपुराण में भी धर्म की 13 पत्नियों का उल्लेख किया गया है। धर्म के श्रद्धा-लक्ष्मी आदि तेरह स्त्रियाँ हैं और कामादि सत्ताईस पुत्र हैं। 
  • महाभारत के शांति पर्व में इनकी पत्नी श्री और इनका पुत्र अर्थ बतलाया गया है।
  • महाभारत के आदिपर्व में शम, काम और हर्ष को इनका पुत्र कहा गया है, जबकि इसी अध्याय के अन्य श्लोक में आठों वसुओं को इनका पुत्र माना गया है। इसी प्रकार अन्यत्र भी कुछ भिन्न नाम हैं।
  • वामनपुराण के अनुसार धर्म की अहिंसा नामक पत्नी हुई, जिससे सनत्कुमार, सनातन, सनक, सनन्दन – चार पुत्र उत्पन्न हुए। 
  • विष्णुपुराण के श्लोकों का तात्पर्य यह है कि धर्म जहाँ रहते हैं, वहाँ उनकी पत्नियाँ भी रहती हैं और जो गुण जगत के समस्त प्राणियों के लिये कल्याणकारी हैं, वे गुण पुत्ररूप से धर्मानुष्ठाता के पास रहते हैं। धर्म देवता हैं, जो प्रत्येक प्राणी के शरीर में विराजमान हैं।

धर्म और विज्ञान का संबंध

बहुत लोगों की ऐसी मान्यता है कि धर्म और विज्ञान एक दूसरे के विरोधी हैं। धर्म अंधानुकरण को बढ़ावा देता है वहीं विज्ञान नवोन्मेष पर बल देता है। लेकिन जब हम गंभीरतापूर्वक धर्म के विभिन्न तत्व पर विचार करते हैं तो यह समझ गलत स्थापित होती है क्योंकि विज्ञान और धर्म दोनों तर्कशीलता को महत्व देते हैं। धर्म में भी नवीन विचारों को समावेशित करने की क्षमता है। धर्म और विज्ञान एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि एक दूसरे के पूरक और सहायक हैं। धर्म जहां मनुष्य के आंतरिक पक्ष पर बल देता है वही विज्ञान मनुष्य के बाह्य पक्ष पर।

हिंदू धर्म विज्ञान विरुद्ध नहीं बल्कि विज्ञान की चेतना को अपने अंदर समाविष्ट किए हुए है। विज्ञान तर्क पर आधारित होता है और हिंदू धर्म में तर्क पद्धति आधार रूप में स्थापित है। यही कारण है कि भिन्न-भिन्न प्रकार के मतवादों एवं तर्कों को हिंदू धर्म में जगह दी गई है।

धर्म और विज्ञान में कोई मौलिक विरोध नहीं है। दोनों की प्रक्रियाओं में अन्तर इतना ही है कि जहाँ विज्ञान बाह्य जगत् को आधार बनाकर सत्य की खोज करता है, वहीं धर्म अन्तर्जगत् में प्रतिष्ठित होकर सत्य का साक्षात्कार करता है। विज्ञान बुद्धिप्रधान और धर्म भावप्रधान है।

विज्ञान धर्म का विरोध नहीं करता और यदि वह ऐसा करना चाहे भी तो उसे कोई आधार नहीं मिलेगा। वैज्ञानिक खोज और धार्मिक जिज्ञासा दोनों एक ही सत्य को उद्घाटित करने की चेष्टाएँ हैं। माध्यमगत विभिन्नताओं के आधार पर दोनों की मौलिक एकरूपता पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाये जा सकते। चाहे धर्म हो अथवा विज्ञान — दोनों सत्य पर ही आधारित हैं। यह दूसरी बात है कि उनके विकास के क्षितिज भिन्न-भिन्न हैं और उनके आयामों में अन्तर है। 

आवश्यकता इस बात की है कि धर्म और विज्ञान को एक दूसरे के विरोध में स्थापित करने के बजाए उनकी समन्वयकारी भूमिका की पहचान की जाए और उसका विकास किया जाए। धर्म और विज्ञान का समन्वय मानव समाज के लिये एक आवश्यकता ही नहीं, बल्कि एक अनिवार्यता भी है। विज्ञान स्वयं आगे बढ़कर धर्म के साथ एकाकार हो जायेगा; क्योंकि दोनों का उद्देश्य मानव कल्याण ही है और दोनों सत्य पर आधारित हैं। 

विज्ञान और धर्म दोनों एक दूसरे को पूर्ण और समीचीन बनाते हैं। विज्ञान हमारी धार्मिक कल्पनाओं और विश्वासों को शुद्ध, परिमार्जित और संस्कृत बनाता है तथा धर्म विज्ञान को सदा इस अज्ञान की याद दिलाते रहकर उसे नम्र बनाये रखता है।

सारांश 

धर्म क्या है –

  1. मानवता की आत्मा है।
  2. मानवता का अनुभूतिप्रधान हृदय है।
  3. आध्यात्मिक अवस्थाओं का परीक्षक और निरीक्षक है।
  4. सृष्टि उत्पत्ति का कारण बतलाता है।
  5. सृष्टि-नियमों का नियन्ता के साथ सम्बन्ध दिखलाता है।
  6. आत्मसाक्षात्कारपरक है।
  7. संस्कृति है।
  8. विद्या है।
  9. श्रेय है, निःश्रेयस है।
  10. अमृतत्व का प्रदाता है।

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