पवन कुमार शर्मा

भारत में ग्रामीण मेलों का सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक महत्त्व है। देश के लगभग सभी राज्यों या प्रदेशों में अधिकतर मेले किसी त्योहार या धार्मिक आयोजन पर आयोजित किए जाते रहे हैं। प्राय: ग्रामीण मेले गांव के लोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही लगते थे। यहां जानवरों का बाजार, मौत का कुआं, कठपुतली का नाच, कठघोड़वे का नाच, स्वांग, हलवाई की दुकानें, बर्तन की दुकानें, दर्जी, अनाज-खाद-बीज क्रय-विक्रय की दुकानें आदि होते थे। शहरों की तरह गांवों में नियमित और स्थायी बाजार नहीं होते थे। इसलिए ग्रामीण लोग खरीद-बिक्री का सबसे सुलभ माध्यम ग्रामीण मेलों को ही मानते थे। मेले मेल-मिलाप, संस्कार, शुद्धीकरण, पंचांग दर्शन आदि का अवसर भी प्रदान करते थे।

इन मेलों में लक्खी मेले का महत्त्वपूर्ण स्थान था। लक्खी यानी एक लाख से अधिक लोग जहां जुटते थे, लक्खी मेला कहलाता था। इसी प्रकार कुंभ मेला (प्रयागराज), खिचड़ी मेला (गोरखपुर), उत्तरायणी मेला (बरेली), ददरी मेला (बलिया), सिंहस्थ मेला (नासिक), पुष्कर मेला (पुष्कर), हरियाली अमावस्या का मेला (उदयपुर), सूरजकुंड मेला (फरीदाबाद) आदि ने उत्पादों, सेवाओं, बाजारों का नवीकरण और विस्तार किया था। अधिकतर मेले स्थानीय होते थे, पर कुछ मेले अंतरराज्यीय और अंतरराष्ट्रीय मेलों की श्रेणी में भी रखे जाते थे। राजस्थान के रामदेव, गोगाजी, तेजाजी, जीणमाताजी, खाटूश्यामजी, केला देवी आदि; बिहार में सोनपुर और महाराष्ट्र में पंढरपुर, उत्तर प्रदेश में बहराइच का मेला, बंगाल में दुर्गापूजा पर एक बड़े मेले का आयोजन कालीबाड़ी में होता था।

खरीदने-बेचने के लिए पुष्कर और बालोतरा (राजस्थान) के मेलों में ऊंट, घोड़े, गाय-बैल आदि प्रचुर संख्या में आते थे। उत्तर प्रदेश में बलरामपुर, गाजीपुर आदि जगहों पर पशु व्यापार मेलों का आयोजन होता था। इस तरह आर्थिक संस्था के तौर पर विभिन्न मेले असंख्य कुशल लोगों को रोजगार प्रदान करते थे। वहां नामी-गिनामी कंपनियों के उत्पाद नहीं होते थे। ऊंटों, बैलों और घोड़ों की सजावट का सामान बिकता था।

आदिवासी, संथाली या ग्रामीण अंचल वाली महिलाओं के लिए सौंदर्य प्रसाधान बिकता था। पर आजकल ग्रामीण मेलों का महत्त्व बहुत कम हो गया है। वे आवश्यकता की अपेक्षा मन बहलाव का स्थल मात्र बन कर रह गए हैं।अब मेले सामान्य व्यापार के मेले नहीं, बल्कि ब्रांड के मेले हो गए हैं। मशीनी युग ने ग्रामीण मेलों और उसकी संस्कृति को धीरे धीरे नष्ट कर दिया है। आज बहुत कम स्थानों पर ग्रामीण मेले लगते हैं। वहां सांस्कृतिक कार्यक्रम जैसे-बीन डांस, भांगड़ा, पंथी नृत्य, सिद्धी गोमा नृत्य, बिहू, स्वांग आदि समाप्त होते जा रहे हैं।आज के मेले मेल-मिलाप से दूर हो गए हैं, जहां ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, रीति-रिवाज और जीवन के उच्चतम मूल्यों को प्रश्रय मिलता रहा है।

अब परंपरागत भोजन संस्कृति भी पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में विदेशी शक्ल अपनाती जा रही है। मेलों में मिट््टी के बर्तन या पत्तों पर भोजन परोसने की परंपरा लुप्त हो चली है। आयुर्वेदिक परंपरा का क्षरण हो रहा है। सरसों के तेल में नमक मिलाकर दांत साफ करना, सुरमा लगाना, तुलसी और पंचामृत का सेवन करना, लोकभाषा, लोककला, लोक खेल जैसे पिट्ठू, गुल्ली-डंडा, चोर-पर्ची, शेर-बकरी, कूद-कूद आदि खेल ग्रामीण संस्कृति से बाहर होते जा रहे हैं। शास्त्रीय संगीत और लोकसंगीत में से बारहमासा, फाग, चैती, कजरी, बिरहा, छपेली आदि के लोक कलाकार लुप्त होते जा रहे हैं। जातीय स्मृतियों में भाषा और बोलियों की अस्मिता का अवमूल्यन हो रहा है।

आज राजनीतिक अवसरवाद के कारण भी सितार, शहनाई, स्वांग का संगम नहीं हो पा रहा है। स्वांग जैसा लोकनाट्य रूप, जिसमें किसी रूप को, ऐतिहासिक या पौराणिक चरित्र को, लोकमानस में प्रसिद्ध चरित्र या देवी देवता को स्वयं में आयोजित किया जाता था, वह अभिनय विशेष रूप से गुम हो गया है। स्वांग हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में प्रसिद्ध हुआ करते थे। इस विधा में पंडित लखमी चंद, रामकिशन व्यास, किशनलाल, बालकराम, बाबा हीरादास, सादुल्ला, मांगेराम आदि का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। द्रौपदी चीरहरण, राजा हरिश्चंद्र, गोपीचंद, पूरणमल, अमर सिंह राठौड़, अलवर का सिततनामा, राजा भोज आदि स्वांगों में भारत की साभ्यतिक और सांस्कृतिक निरंतरता के दर्शन होते थे। भारतीय संस्कृति का सच्चा प्रतिबिंब यहां दिखाई देता था। यूनानी, मिश्र, मेसोपोटामिया की संस्कृति भी भारतीय संस्कृति के सामने नतमस्तक थी। आज इनकी अनुपस्थिति विरोधी संस्कृति और उनके विरोधी तत्त्वों को स्थापित कर रहे हैं।

समाज और सरकार को मेलों की प्रासंगिकता पर विशेष रूप से ध्यान देने की जरूरत है। इनके द्वारा सृजित रोजगार और सकल घरेलू उत्पाद में सहयोग पर ध्यान देना होगा। इनके द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रसन्नता और जीवन मूल्य प्रदान करने में योगदान का सही आकलन करना होगा, जिसके लिए समुचित सर्वे करवाना जरूरी है। ऐसा करके ही हम भारतीय संस्कृति के भौतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को बचा और सांस्कृतिक निरंतरता को बरकरार रख सकते हैं।