राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का छठा सरसंघचालक बनने से पहले मोहन भागवत बहुत लो प्रोफाइल रहे। हालांकि संघ की विचारधारा उन्हें विरासत में मिली थी। मोहन भागवत का जन्म 11 सितंबर, 1950 को महाराष्ट्र के सांगली जिले में एक कट्टर आरएसएस परिवार में हुआ था। भागवत के दादा नानासाहेब संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार के सहयोगी थे। पिता मधुकरराव गुजरात में प्रचारक थे और मां मालती आरएसएस की महिला शाखा (राष्ट्रसेविका समिति) की सदस्य थीं। कुल मिलाकर मोहन भागवत आरएसएस के अभिजात वर्ग से आते हैं।

भागवत के पिता और नरेंद्र मोदी

भागवत के बारे में ऐसा कहा जाता है कि वह टकराव के बजाय लोगों का मन जीतने के लिए जाने जाते हैं। उन्हें यह गुण विरासत में मिला है। गुजरात का प्रचारक रहने के दौरान मोहन भागवत के पिता मधुकर राव भागवत ने ही संघ के भीतर नरेंद्र मोदी को प्रशिक्षित किया था। नरेंद्र मोदी ने अपनी किताब ज्योतिपुंज में बताया है कि वह 20 वर्ष की उम्र में मधुकर राव भागवत से मिले थे और आरएसएस प्रशिक्षण के तीसरे वर्ष में नागपुर में एक महीने तक उनके साथ भी रहे थे।

नरेंद्र मोदी अपनी किताब में भागवत के पिता के बारे में लिखते हैं, “उनके पहनावे में मराठी-गुजराती संस्कृतियों का मिश्रण था। वह गुजराती शैली की गांधी धोती और उसके ऊपर विदर्भ की सिंगलेट पहनते थे। उनके हाथ में हमेशा पान का डिब्बा रहता था। …जिन लोगों से हम मिलते हैं उनमें से कुछ हम पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। लेकिन मधुकररावजी तो ऐसे घुल मिल जाते थे जैसे दूध में चीनी।”

मोदी लिखते हैं कि लाल कृष्ण आडवाणी को भी मधुकर राव भागवत ने ही प्रशिक्षित किया था, “1943-44 में आरएसएस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने उन्हें उत्तर भारत और सिंध (आज का पाकिस्तान) के सभी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने का काम सौंपा। लाल कृष्ण आडवाणी जैसे कई स्वयंसेवकों ने इस काल में मधुकरराव के सानिध्य में शिक्षा प्राप्त की।”

मधुकर राव से प्रेरित होने की बात स्वीकार करते हुए मोदी लिखते हैं, “वह संघ परंपरा की जीवंत पाठशाला की तरह थे। वह राष्ट्र-निर्माण की राह पर चलने वाले एक महान यात्री थे। उनके पदचिन्हों ने कई लोगों को प्रेरित किया है, और मैं भी उनमें से एक हूं।”

मोदी और मोहन भागवत

नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत दोनों का जन्म छह दिन के अंतर पर सितंबर 1950 में हुआ था। दोनों संघ में प्रचारक रहे। ऐसा माना जाता है कि खुद मोहन भागवत ने ही प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी का नाम आगे किया था। दरअसल, सरसंघचालक बनने के बाद भागवत ने ही 75 वर्ष की आयु सीमा निर्धारित की थी। द हिंदू की एक रिपोर्ट के मुताबिक, आडवाणी को बताया गया कि 2009 का आम चुनाव सत्ता के लिए उनका आखिरी मौका होगा। हार के बाद आडवाणी को साइड कर दिया गया।

नरेंद्र मोदी ने अपनी किताब में मोहन भागवत की तारीफ करते हुए उन्हें पारसमणि बताया है। वह लिखते हैं, “मधुकरराव स्वयं प्रचारक थे और फिर उन्होंने अपने बेटे मोहनराव भागवत को भी प्रचारक के रूप में देश के आगे किया (वे आज सरसंघचालक हैं)। पारसमणि का स्पर्श लोहे को सोने में बदल देता है। लेकिन कोई पारसमणि लोहे के टुकड़े को दूसरे पारसमणि में नहीं बदल सकता। मधुकरराव और मोहनराव की कहानी इसे पलट देती है। पारसमणि मधुकरराव ने पारसमणि मोहनराव को तैयार किया।”

पशुचिकित्सक की नौकरी छोड़ प्रचारक बने थे मोहन भागवत

चार भाई-बहनों में सबसे बड़े मोहन ने बचपन में ही अपना जीवन आरएसएस को समर्पित करने का फैसला कर लिया था। ग्रामीण चंद्रपुर में बतौर पशुचिकित्सक छह महीने काम करने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और जिला आरएसएस प्रचारक बनने के लिए अकोला चले गए। बाद में उन्होंने विदर्भ और फिर बिहार में भी संघ के लिए काम किया है। संघ के भीतर वह तेजी से आगे बढ़े। सन् 2000 में वह आरएसएस के सरकार्यवाह (महासचिव) बन गए थे।

कैसे सरसंघचालक बने भागवत?

2004 में भाजपा को मिली चुनावी हार के बाद संघ को ‘बुजुर्गों का संगठन’ कहा जाने लगा था। भाजपा के शासनकाल (1999-2004) में संघ परिवार के भीतर कलह देखी गई। आरएसएस के पूर्व स्वंयसेवक दिलीप देवधर का दावा है कि “2004 में भाजपा की हार सुदर्शन-दत्तोपंत ठेंगड़ी समूह और वाजपेयी समूह के बीच आंतरिक टकराव के कारण हुई थी।” 2009 में संघ के भीतर बदलाव करने का फैसला किया गया।

मार्च 2009 में जब संघ के पदाधिकारी सरकार्यवाह के चुनाव के लिए नागपुर में जुटे, तो बतौर सरकार्यवाह भागवत ने तीन-तीन साल का तीन कार्यकाल पूरा कर लिया था। द हिंदू की एक रिपोर्ट के मुताबिक, आरएसएस विचारक एमजी वैद्य को चुनाव प्रबंधक बनाया गया था। वैद्य, सरकार्यवाह के चुनाव की प्रक्रिया शुरू करने वाले थे, तभी उन्हें तत्कालीन सरसंघचालक केएस सुदर्शन ने रोका दिया। उन्होंने वैद्य को अपनी खराब तबीयत के बारे में बताया, फिर सरसंघचालक पद के लिए मोहन भागवत का नाम प्रस्तावित कर दिया।

तब भागवत 59 वर्ष के थे। आरएसएस के मानकों के अनुसार वह इस शीर्ष पद के लिए युवा थे। बाहरी दुनिया संघ के फैसले से भले ही आश्चर्यचकित हुई हो। लेकिन अंदरूनी लोग जानते हैं कि संघ ने ‘पीढ़ीगत बदलाव’ की सावधानीपूर्वक योजना बनाई थी।